बाराबंकी के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल

बाराबंकी लखनऊ से लगभग 28 किलोमीटर की दूरी पर है। बाराबंकी के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल (barabanki famous places) नीचे दिए गए हैं। बाराबंकी को ‘पूर्वांचल का प्रवेश द्वार’ भी कहा जाता है।

कहा जाता है कि यहां पर ‘भगवान बाराह’ के पुनर्जन्म के कारण, इस स्थान को ‘बाणहन्या’ के नाम से जाना जाने लगा, जो समय के साथ प्रवर्तित होकर बाराबंकी हो गया।

लोधेश्वर धाम (महादेवा) | बाराबंकी के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल

लोधेश्वर धाम बाराबंकी के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों (barabanki me ghumne ki jagah) में से एक है। लोगों का कहना है कि, महाभारत से पहले, भगवान शिव को एक बार फिर से पृथ्वी पर प्रकट होने की इच्छा हुई। फिर उन्होने एक पंडित लोधेराम अवस्थी जो एक ब्राह्मण, सरल, दयालु और अच्छा स्वभाव वाला ग्रामीण था। एक रात भगवान शिव ने उनके सपने में आकर दर्शन दिये।

अगले दिन लोधेराम ने खेतो में जाकर खुदाई की। खुदाई करते हुए उसका औजार किसी कठोर वस्तु से टकराया जब उसने देखा तो खून बहते हुए वहां से भगवान शिव जी की मूर्ति  मिली जिसका निशान आज भी भगवान की मूर्ति मे है, परन्तु काफी खुदाई करने पर भी मूर्ति के दूसरे छोर तक पहुंचने में असफल रहा।

उसने उसे वैसे ही छोड़ दिया, और उसी स्थान पर मंदिर का निर्माण किया, जिसे अर्ध-नाम ‘लोधे’ और भगवान शिव के ‘ईश्वर’ का नाम दिया। इस प्रकार भक्त और भगवान दोनो के से लोधेश्वर धाम प्रसिद्ध हो गया। यहां पर शिवरात्रि मे श्रद्धालुओं की बहुत भीड़ उमड़ती है और बहुत सारे भक्त दूर दूर से कांवड़ लेकर आते हैं। और यहां पर सावन माह में भी बहुत भीड़ होती है खासकर सावन के सोमवार को बहुत ही ज्यादा भक्तों की भीड़ उमड़ती है।

देवा शरीफ | बाराबंकी के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल

बाराबंकी का देवा शरीफ एक ऐसा तीर्थ स्थल है जहां पर हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों के लोग दर्शन के लिए आते हैं।यह स्थल बाराबंकी में घूमने की जगहों में धार्मिक स्थल के रूप शुमार है।

यह हाजी वारिस अली शाह की जन्मस्थली है, जिन्होंने मानवता के लिए सार्वभौमिक प्रेम के अपने संदेश से लोगों की कई पीढ़ियों के जीवन को प्रभावित करना था। हाजी वारिस अली शाह 19वीं शताब्दी की पहली तिमाही में हुसैनी सय्यदों के एक परिवार में जन्में थे।

हिंदु समुदाय ने उन्हें उच्च सम्मान में रखा तथा उन्हें एक आदर्श सूफी और वेदांत का अनुयायी मानते थे। हाजी साहब का 7 अप्रैल, 1905 को स्वर्गवास हो गया। उनको उसी स्थान पर दफनाया गया जहां उनका स्वर्गवास हुआ था, और उस जगह पर उनके कुछ समर्पित अनुयायियों ने जिसमें दोनों हिंदू और मुसलमान भक्तों ने उनकी स्मृति में एक भव्य स्मारक स्थापित किया।

हर साल ‘सफर’ (चन्द्र आधारित) महीने में पवित्र कब्र पर उर्स आयोजित होता है। हाजी वारिस अली शाह कार्तिक के महीने (अक्टूबर-नवंबर) में अपने पिता के ‘उर्स’ का आयोजन करते थे, जिसे आज भी संतों के स्मरण के उपलक्ष्य में  ‘देवा मेला’ के नाम से एक बड़ा मेला आयोजित किया जाता है जो 10 दिनों तक चलता है।

देश के सभी हिस्सों और विदेशों से तीर्थयात्री महान सूफी संत, हाजी वारिस अली शाह और उनके पिता कुर्बान अली शाह को श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं। मेले मे कई  सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिसमें ऑल इंडिया मुशायरा, कवि सम्मेलन, संगीत सम्मेलन, मानस सम्मेलन इत्यादि शामिल हैं।

पारिजात वृक्ष बाराबंकी

यहां कुंती माता द्वारा स्थापित मंदिर के पास, एक विशेष पेड़ है जिसे ‘परिजात वृक्ष’ कहा जाता है। इस पेड़ के बारे में कई बातें प्रचलित है। जिनमें से एक यह है, कि अर्जुन इस पेड़ को स्वर्ग से लाये थे और कुंती इसके फूलों से शिवजी का अभिषेक करती थी। 

दूसरी बात यह है, कि भगवान कृष्ण अपनी प्यारी रानी सत्यभामा के लिए इस वृक्ष को लाये थे।

परिजात के बारे में हरिवंश पुराण में भी लिखा हुआ मिलता है। परिजात एक प्रकार का कल्पवृक्ष है, कहा जाता है कि यह केवल स्वर्ग में होता है। जो कोई इस पेड़ के नीचे मनोकामना करता है, वह जरूर पूरी होती है। 

धार्मिक और प्राचीन साहित्य में, हमें कल्पवृक्ष के कई संदर्भ मिलते हैं, लेकिन केवल किन्तुर (बाराबंकी) को छोड़कर इसके अस्तित्व के  प्रमाण का विवरण विश्व में कहीं और नहीं मिलता। जिससे किन्तूर के इस अनोखे परिजात वृक्ष का विश्व में विशेष स्थान है। यह पेड़ एक विशेष श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि इसमें कोई भी फल या बीज नहीं होता है, और न ही इसकी शाखा की कलम से एक दूसरा परिजात वृक्ष पुन: उत्पन्न किया जा सकता है। वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार यह एक यूनिसेक्स पुरुष वृक्ष है, और ऐसा कोई पेड़ और कहीं नहीं मिला है।

कोटवा धाम | famous places in barabanki

कोटवा धाम मन्दिर में मंगलवार को और बुद्ध पूर्णिमा को था पर श्रद्धालु गण दर्शन करने आते हैं। यहां ‘सतनामी’ संप्रदाय के संस्थापक बाबा जगजीवन दास का मंदिर है, इसे कोटवा धाम के तथा बड़े बाबा के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के पास में एक बहुत ही सुंदर तालाब है।अक्टूबर और अप्रैल के महीनों में आयोजित मेले के दौरान हजारों तीर्थयात्री इस तालाब में पवित्र डुबकी लगाते हैं। बाबा जगजीवन दास एक बड़े साधू

थे। लोगों का कहना हैं कि एक बार बाबा जगजीवन दास जी की बहन की शादी में लड़के वालों ने मांसाहारी भोजन खाने की ज़िद की तो फिर उन्होने बैंगन की सब्जी बनवायी जिसको देख और खाकर मांसाहारी लोगों को मांस का स्वाद मिला और शाकाहारियों को बैंगन। तभी से इस गांव के लोग कभी भी खाने मे बैंगन का सेवन नहीं करते हैं।

मंजीठा  नाग मंदिर

बाराबंकी में मंजीठा गाँव में महात्मा बुद्ध के जमाने का प्राचीन नाग देवता का मंदिर है। यहां पर नाग बाबा की बांबी पर जल और दूध चढ़ाया जाता है। स्थानीय लोगों ने बताया कि इस मंदिर में सभी तरह के जहरीले सर्पों की अदालत लगती है और जो भी मन्नत यहां मांगी जाती है वो पूरी होती है।

सावन के महीने में यहां हर वर्ष मेला लगता है। नाग देवता के दर्शन के लिए अन्य प्रदेशो से भी लोग यहां आते हैं। श्रद्धालुओं का मानना है कि यहां सांपों से परेशान व्यक्ति को सांपों से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही कई तरह के रोग भी मंदिर में मन्नत मांगने से ठीक हो जाते हैं।

कुंतेश्वर महादेव मंदिर

माना जाता है कि किन्तूर गांव का नाम पाण्डवों की माता कुन्ती के नाम पर है। यहां के शिवलिंग की कोई अदृश्य शक्ति रात 12 बजे के आसपास सबसे पहले पूजा अर्चना कर जाती हैं। इस कारण आज तक किसी की भी यहां के शिवलिंग का सबसे पहले पूजा अर्चना करने की ख्वाहिश पूरी नहीं हुई।

यह रहस्य इस मंदिर को ख़ास बना देता है। जब धृतराष्ट्र ने पाण्डु पुत्रों को अज्ञातवास दिया तो पांडवों ने अपनी माता कुन्ती के साथ यहां के वन में निवास किया था। इसी दौरान पांडवों ने माता कुंती के लिए यहाँ कुंतेश्वर महादेव की स्थापना की थी।

माता कुंती प्रतिदिन सुबह शाम यहाँ पारिजात के दिव्य पुष्पों से अपने आराध्य भगवान् शिव की आराधना करती थीं। कहते हैं कि माता कुंती यहाँ महादेव की आराधना में ऐसी रमी कि महाभारत के युद्ध के बाद अपनी आयु पूरी कर जब उन्होंने देह का त्याग किया तो उनकी आत्मा के जिस अंश में कुंतेश्वर महादेव बसे थे वह अंश स्वतः ही इस मंदिर में आ गया।
मान्यता है कि इस मंदिर में आज भी माता कुंती सूक्ष्म रूप  में रहती हैं और रोज रात को अपने आराध्य भगवान् शिव की पूजा करती हैं। वह शिवलिंग पर जल और पुष्प अर्पित करती हैं।

इस बात की पुष्टि के लिए किसी न्यूज चैनल की टीम ने इस मंदिर में कैमरा लगा कर सच जानना चाहा। वहां की लोक मान्यता के अनुसार रात में कैमरा गिर गया और तेज रोशनी चारों ओर फैल गई।

सतरिख

ऐसा कहा जाता है कि इसका काफी समय पहले इसका नाम सप्तऋषि था, क्योंकि गुरु वशिष्ठ ने यहां युवा राजकुमारों को उपदेश दिया था और अध्यापन कराया था।

कभी यह संतों और साधुओं की बड़ी संख्या की तपस्या स्थली रही थी। इस स्थान के बारे में मुस्लिम राज से पहले का प्रमाणिक विवरण देने वाला कोई भी प्रमाणित साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। यह सय्यद सालार मसूद का मुख्यालय था, जो महमूद ग़जनी के भाई थे। उनके पिता सलार शाह का मकबरा यहां पर स्थित है, और लोग यहां पर अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए इसका दौरा करते हैं।

गर्मियों में यहां ‘ज्येष्ठ’ माह की पूर्णिमा तिथि को लोगों का मुख्य एक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।सालार शाह के साथ शेख सैलाहउद्दीन भी यहां आए थे और सतरिख में ही बस गए थे।

रानीगंज

यहां पर नवरात्रि में बहुत ही अच्छी और खास माता रानी की मूर्तियां रखी जाती है। यहां पर लोग नवरात्रि के काफी पहले से ही सजावट करना शुरू कर देते हैं। यहां की मूर्तियां पूरे तो बहुत ही अधिक सुंदर और लुभावनी होती हैं।

रानीगंज की मूर्तियां रात में लाइट के कारण वह और भी सुंदर दिखती हैं। यहां पर लोग पहाड़ बनाकर फिर उसके ऊपर मूर्तियां रखते हैं लोगो पहाड़ की चढ़ाई करके फिर माता रानी के दर्शन पाते हैं।

सीतापुर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल के लिए क्लिक करें और अगर आप बाराबंकी के बारे में अधिक जनाना चाहते हैं तो ऑफिसियल वेबसाइट पर जा सकते हैं। क्लिक करें

कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नोतर

बाराबंकी से लोधेश्वर कितने किलोमीटर है ?

बाराबंकी बस स्टॉप से लोधेश्वर महादेव मंदिर लगभग 30 किलोमीटर है।

लखनऊ से लोधेश्वर कितनी दूर है ?

कैसरबाग़ बस स्टॉप से लोधेश्वर महादेव मंदिर लगभग 64 किलोमीटर है।

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